संस्कार आध्यात्मिक, सांसारिक जगत को भौतिक जगत से जोड़ते हैं और उसका पूरक बनते हैं । संस्कारों की महिमा आज या कल की नहीं अपितु अत्यंत प्राचीन है ऋषियों – मुनियों के कहे वचन और क्रियाएँ मनुष्य को सद्कर्म करने का सन्देश देते हैं ।
संस्कार किसी भी व्यक्तित्त्व के अभूतपूर्व विकास की जरूरी कड़ी है एक संस्कारी व्यक्ति को समाज में मान – सम्मान से देखा जाता है खानदानी और पूर्वजों की परम्परा को निभाने वाले, संस्कारों को अपने जीवन का अहम हिस्सा मानते हैं और उनके प्रति कर्तव्यबद्ध महसूस करते हैं I
जो बीत गई वो बात गई अब भी देर नहीं हुए है आने वाले जीवन को शुद्ध और पवित्र बनाएँ और जो भी संस्कार अब निबाह सकते है निभाएँ I चलिए शुरू करते हैं छठे संस्कार से -:
6. निष्क्रमण संस्कार
यह संस्कार नवजात शिशु के जन से लेकर तीन माह के बाद किया जाता है I निष् का अर्थ है ‘बाहर’ और क्रमण का ‘कदम उठाना’ I शिशु के जन्म के चौथे या छठे महीने में निष्क्रमण संस्कार किया जाता सूर्य तथा चंद्रमा तथा अन्य देवताओं के दर्शन कराना इस संस्कार का उद्देश्य है । हमारा शरीर पंचतत्वों – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश से बना है। इस संस्कार में शिशु स्वस्तिक बने और गाय के गोबर से लिपे बरामदे में के जाया जाता हैं जहा से सूरज तथा अन्य तत्वों से शिशु को परिचित करवाया जाता है I
7. अन्नप्राशन संस्कार
अन्नप्राशन संस्कार वैसे तो सातवाँ संस्कार है परन्तु यह घर परिवार में एक उत्सव से कम नहीं होता I शिशु पहली बार ठोस आहार का सेवन करता है इस प्रक्रिया में माँ अपने बालक को गोद में लकर बैठती है पैदा हुए शिशु का मामा इस रसम को अपने हाथ से आहार का दाना खिलाकर करता है तत्पश्चात एनी मौजूद लोग यही प्रक्रिया करता है और माँ और शिशु को मान या उपहार देते हैं I अन्नप्राशन संस्कार के ज़रिया शिशु के पेट में रहने के कारणजो गंदगी आ जाती हैं उसका नाश हो जाता है। उह संस्कार 6-7 माह के शिशु के साथ किया जाता है जब उसके दाँत निकलने शुरू हो जाते हैं I
8. मुंडन संस्कार
मुंडन संस्कार को चूड़ाकर्म संस्कार तथा “चौलकर्म’ भी कहा जाता है शिशु जैम के पहले साल की उम्र के पहले के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूरा होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं । इसके बाद शिशु के सिर पर दही-मक्खन लगाकर नहलाया जाता है इस मांगलिक क्रिया के बाद सौन्दर्य की प्राप्ति होती है । यह संस्कार शिशु के बल, आयु व तेज में वृद्धि करता है। गर्भ में रहने के कारण शिशु के सिर में खाज, फोड़े, फुंसी आदि होने की पूरी संभावना रहती है साथ ही बाल भी आड़े तिरछे आते हैं। शैशवास्था में कम से कम एक बार उस्तरे से मुंडन करवाना आवश्यकता होता है।
9. विद्यारंभ संस्कार
‘विद्यारंभ संस्कार’ विद्या आरंभ का संकेत देता है, गुरुकुल से यह प्रथा चली आ रही है । इस संस्कार के द्वारा छोटे बच्चों को ज्ञान जगत में प्रवेश करवाया जाता है – शिक्षा – दीक्षा, अस्त्र – शास्त्र व अन्य विद्या सीखने की दुनिया से परिचय करवाया जाता है। यह संस्कार 2-5 वर्ष की आयु के बच्चे के लिए किया जा सकता है। बालक को वेदों का अध्ययन करने का अधिकार इस संस्कार के क्रियान्वय के बाद मिलता है । शुभ मुहूर्त देखकर बालक की शिक्षा का श्री गणेश किया जाती है।
10. कर्णवेधन संस्कार
कर्णवेधन संस्कार अर्थात् ‘कान बींधना’ इसके अंतर्गत शिशु के कान छेदें जाते हैं। इसलिए इसे कर्णवेधन संस्कार कहा जाता है। शिशु के जन्म के छह माह बाद से लेकर पाँच वर्ष की आयु के बीच कुल की प्रथा के अनुसार यह संस्कार किया जाता है । यही वह समय है जब दीमागी विकास का विकास हो रहा होता है दरअसल कान के निचले हिस्से में एक ऐसा स्थान है जहाँ से आँखों की नसें होकर गुज़रती हैं बच्चों की आंखों की रोशनी बेहतर हो सके इसलिए इस हिस्से को छिदवाया जाता है । एक अन्य कारण है कि सूर्य की किरणें कानों के छेदों से होकर बच्चे को पवित्र करके उसे तेजस्वी बनती हैं I
11. उपनयन संस्कार
उपनयन संस्कार को ‘व्रतादेश व यज्ञोपवीत संस्कार’ भी कहते हैं। बालक को विधि विधान के साथ जनेऊ धारण करने का संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता है । वास्तव में जनेऊ के तीन सूत्र, तीन देवताओं के सूचक हैं – ब्रह्मा, विष्णु, महेश । बालक को गायत्री मंत्र तथा वेदों का अध्ययन आदि करने का अधिकार प्राप्त होता है । जनेऊ को धारण करना विद्यारंभ दर्शाता है। मुंडन के बाद और पवित्र जल में स्नान करके जनेऊ को अंगीकार किया जाता है । सूत से बने इस पवित्र डोरी को व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे आडा करके पहना जाता है।
12. वेदारम्भ संस्कार
यज्ञोपवीत यानी उपनयन संस्कार के बाद बालक वेदों का अध्ययन करता है I प्राचीन काल में बालक विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए गुरु -आचार्यो के पास जाता था। वेदारम्भ से पहले गुरु -आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का महत्त्व समझाते हुए उसका पालन करने का प्रण करावाते थे तथा परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराने का अधिकार देते थे। चारों वेदों से ज्ञान अर्जित करने के लिए नियम और अनुशासन के अपनाने पर यह संस्कार बल देता है ।
13. समावर्तन संस्कार
समावर्तन का अर्थ है वापस लौटना इसका अन्य अर्थ है उपधि देने से संबंधित समारोह । विद्याध्ययन करने के पश्चात् यह संस्कार किया जाता है । शास्त्रों के अनुसार शिक्षा पूरी हो जाने के बाद ब्रह्मचारी अपने गुरु की आज्ञा से अपने घर लौटता है इसीलिए इसे समावर्तन संस्कार कहा जाता है। संस्कार को करने के लिए वेदमंत्रों से अभिमंत्रित जल से भरे हुए 8 कलशों से विधि विधान के साथ ब्रह्मचारी को नहलाया जाता है इसे वेदस्नान संस्कार भी कहा जाता है। समावर्तन संस्कार के बाद ब्रह्मचारी जीवन से गृहस्थ जीवन में प्रवेश हो जाता है।
14. विवाह संस्कार
विवाह संस्कार चौदहवाँ संस्कार है, विवाह का अर्थ है ‘पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना’। विवाह संस्कार के बाद ही व्यक्ति गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता था। विवाह के बाद पति-पत्नी साथ रहकर धर्मानुसार एक दूसरे के साथ जीवन यापन करते हैं और यह प्रतिज्ञा करते हैं कि “हमारा मन एक- सा रहे और आपसी भेद- भाव न हो”। इस संस्कार के पश्चात् माना जाता है कि दंपति का गृहस्थ जीवन सुख- शांति तथा समृद्धि के साथ -साथ उत्तम संतान योग को पुष्ट करता है ।
15. विवाह अग्नि संस्कार
विवाह अग्नि संस्कार अर्थात् विवाह के पश्चात् अग्नि की और संकेत करता है । विवाह विधिवत सम्पन्न होने के बाद वर-वधू, मंडप की अग्नि को अपने घर ले जाकर किसी पवित्र स्थान पर स्थापित करते हैं वे प्रतिदिन अपने कुल की परंपरा के अनुसार सुबह-शाम उसमें हवन करते हैं। ऐसा माना जाता है कि यह अग्नि पवित्र होती है और इसे बुझने नहीं देना चाहिए अखंड रखते हुए इसकी रक्षा करनी चाहिए I
16. अंत्येष्टि संस्कार
अंतिम यज्ञ – जीवन का अंतिम यज्ञ इसे अंतिम संस्कार भी कहा जाता है । आज भी शवयात्रा के साथ घर के आगे से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है और इसकी अग्नि से दाह संस्कार किया जाता है। विवाह अग्नि संस्कार को निभाते हुए उसी अखंड अग्नि से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। नियम से अग्नि को जलने वाला व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में समा जाता है। पारंपरिक जीवन चक्र के अनुसार संस्कार गर्भधान से शुरू होकर अन्त्योष्टि पर समाप्त हो जाते हैं ।
संस्कार जीवन में हमें गलत से सही और अशुभ से शुभ की ओर अग्रसर करते हैं इन्हें अपनाने से जीवन का प्रत्येक क्षण पावन और पवित्र बनता है I संस्कार जीवन जीना सीखते हैं संस्कारी व्यक्ति सही गलत का भेद जानकर उससे दुरी बनाकर रखता है और उस पथ पर कदम नहीं रखता जो संस्कार में शामिल नहीं हैं I
अपने सुझाव और विचार प्रकट करना न भूलें ।
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